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बाबर का विजय रथ दिल्ली से आगरा पहुंच चुका था। उसका अगला गंतव्य चित्तोड था। चित्तोड और फतहपुर सीकरी के बीच अलवर रियासत बाबर के लिए बडी अडचन थी। अलवर रियासत पर हुकूमत थी राजा हसन खां मेवाती की। चित्तोड के महाराजा राणासांगा को सूचना मिल चुकी थी कि बाबर हमले के लिए कमर कस चुका है। राणासांगा ने हसन खां मेवाती की शरण ली। हसन खां मेवाती ने राणासांगा को वचन दे दिया कि वह बेफिक्र हो जाए। इसी दौरान बाबर ने हसन खां मेवाती को भी पत्र लिखा कि 'वह भी मुस्लमान है और तू भी मुस्लमान है। इसलिए हम दोनों धर्म भाई हैं। लिहाजा आप मेरा साथ दें, बदले मे जो चाहोगे, मिल जाएगा'। बाबर के इस पत्र के जवाब मे राजा हसन खां मेवाती ने लिखा कि 'बाबर, मेरे पुरखों ने धर्म बदला है , वतन नही'। 'इसलिए राणासांगा मेरा भाई है, 'मैं राणासांगा के साथ हूं'। 'आप के साथ नहीं'। 'मेरी रियासत मे सोच समझ कर कदम रखना'।
इस जवाब के बाद बाबर गुस्से मे लाल हो गया। और उसने हसन मेवाती को ही नही, समूची कौम को बुरा भला कहा। जिसको स्वंय बाबरनामा साक्ष्यांकित करता है।
15 मार्च 1527 को खानवा के मैदान मे भयंकर युद्ध हुआ। जिसमे राणासांगा को घायल अवस्था मे युद्ध का मैदान छोडना पडा। कई महाराजाओं ने चलते युद्ध मे पाला बदल लिया। परन्तु भारत के सच्चे सपूत और सांप्रदायिक एकता के पुरोधा तथा अपनी बात के धनी राजा हसन खां मेवाती युद्ध के मैदान मे अंतिम सांस तक बाबर का मुकाबला करते रहे और अंत मे अपने 12 हजार मेवाती यौद्धाओं के साथ वीरगति को प्राप्त हो गए। शहीद राजा हसन खां मेवाती और उनके 12 हजार वीर सपूतों को बारहा सलाम, खिराजे अकीदत, भावभीनी श्रद्धांजलि।
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